Thursday 28 April 2011

जिन्दगी का बोझ

कोई 20वर्ष पूर्व एक कहानी लिखी थी " काकी" .यह एक सच्चा पात्र रहा है जो मेरे बचपन के दिनों मैं मोहल्ले की सबसे बुजुर्ग औरत "काकी " के नाम से जाना जाता रहा । काकी को अक्सर कहते सुना था की इस दुनिया में सबसे बढ़ा बोझ खुद अपनी ही जिन्दगी का है .खासतौर पर जब अपने ही साथ छोड़ जाएँ । समय तो बदल गया है , लोगो ने बदलते समय के साथ जिन्दगी को जीना भी खूब सिख लिया पर यक़ीनन आज भी कहीं ,किसी कोने मे काकी जैसी औरतें मौजूद होंगी जो अपने अकेलेपन से जूझते हुए जिन्दगी को जी रही होंगी .बहरहाल आज न जाने क्यों "काकी " के नाम कुछ शब्दों को पिरो कर लिखने की इच्छा हुई? कुछ शब्दों मे पिरोई काकी का चित्रण करती एक कविता
कांपते हाथो की कहानी
सुनो काकी की जुबानी
कभी सपने हजार थे आँखों मे
आज सिर्फ पानी ही पानी
पांच पूतों को पालना झुलाया
उनके सुख दुःख मे हर पल गंवाया
सिर्फ यादें हैं अपनी ,कोई न अपना
सुनी आँखों मे नहीं कोई सपना ।
काकी तब भी इंतजार करती थी
अब भी इंतजार करती है
फर्क सिर्फ इतना भर है तब
हर पल कोई दस्तक देता था
अब कोई दस्तक नहीं होती ।
काकी हर नए दिन के साथ
सिर्फ करती है इंतजार
उस लोक मे जाने का
जहाँ जाकर फिर कोई
इंतजार नहीं रहता।
बहरहाल काकी तोह बहुत समय पूर्व ही इस लोक को विदा कह गयी थी । उसके अपने उससे पहले ही स्वर्ग सिधार चुके थे । उसके अच्छे वयवहार के कारण मोहल्ले के लोगो ने ही उसकी सब अंतिम क्रियाएं पूरी की थी लेकिन एक जुमला वो हमेशा अंतिम समय तक कहना नहीं भूलती थी की ईश्वर की इच्छा के आगे इन्सान कुछ नहीं कर सकता ।

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